संस्कृतं नाम देवी वागन्दाख्याता महर्षिभिः
सृष्टि से प्रलय तक, पृथ्वी से स्वर्ग तक, जन्म से मृत्यु तक, ब्रह्माण्ड के गूढतम रहस्यों को संस्कृत में वर्णित किया गया है। यह न केवल भाषा है, अपितु अमृतवाणी है। मनुष्यों का देवताओं से सम्बन्ध स्थापित करने वाली भाषा होने के कारण इसे देववाणी कहते हैं। समस्त भाषाओं की जननी संस्कृत भाषा सर्वविध मानव कल्याण का मार्ग प्रशस्त करती है। संस्कृत की विशेषता सुविदित है, जिसमें विविध शास्त्रों का गुम्फन किया गया है।
अनन्त ज्ञान को धारण करने वाली संस्कृत भाषा के संरक्षण संवर्द्धन प्रचार-प्रसारार्थ जयपुर के महाराजा सवाई रामसिंह द्वितीय (1835-1880) द्वारा संस्कृत अध्ययन केन्द्र की स्थापना की गई। सन् 1852 में महाराज कॉलेज की स्थापना के पश्चात् सन् 1865 में संस्कृत कॉलेज श्री रामचन्द्र जी के मन्दिर, सिरहड्योदी बाजार में स्थानान्तरित किया गया, वहीं से अध्यक्ष की स्वतन्त्र परम्परा प्रारम्भ हुई तथा पं. श्री एकनाथ झा प्रथम प्राचार्य नियुक्त हुए। भारत में स्थापित प्रथम चार संस्कृत महाविद्यालयों में महाराज संस्कृत कॉलेज भी एक है यथा -
महाविद्यालय में ही विद्यालय भी संयुक्त रूप से संचालित था। प्रारम्भ में यहाँ की परीक्षाएँ करनी संस्कृत कॉलेज से सम्बद्ध थी। बाद में यह महाविद्यालय अपने स्वतन्त्र पाठ्यक्रम द्वारा स्वयं ही परीक्षाएं आयोजित करने लगा। कालान्तर में संस्कृत की परीक्षाएँ विभागीय परीक्षा विभाग के अधीन आयोजित होने लगीं। प्रवेशिका व उपाध्याय परीक्षा सन् 1962 से माध्यमिक शिक्षा बोर्ड राजस्थान, अजमेर से सम्बद्ध हुई। इसी प्रकार शास्त्री व आचार्य परीक्षाएँ भी सन् 1971 से राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर के अधीन आयोजित होने लगीं। सन् 1958 में राजस्थान में पृथक से संस्कृत शिक्षा निदेशालय की स्थापना हुई और तभी से प्रदेश के समस्त विद्यालय एवं महाविद्यालय निदेशालय के अधीन अद्यावधि संचालित हो रहे हैं। विभाग की समस्त प्रशासनिक व्यवस्थाएँ राजस्थान सरकार के अधीन हैं। सन् 2001 में जगद्गुरु रामानन्दाचार्य राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालय, जयपुर की स्थापना के साथ प्रदेश के समस्त संस्कृत महाविद्यालय इसी विश्वविद्यालय से सम्बद्ध हैं।
महाराज संस्कृत कॉलेज की अखिल भारतीय स्तर की विद्वत्परम्परा में वेदज्ञ पं. मधुसूदन ओझा, सुप्रसिद्ध वैयाकरण पं. शिवदत्त दाधीच, आयुर्वेद मनीषी पं. लक्ष्मीराम स्वामी. म.म.पं. गिरिधर शर्मा चतुर्वेदी, पं गिरिजाप्रसाद द्विवेदी, राजगुरू पं. चन्द्रदत्त ओझा, पं. कन्हैयालाल नैयायिक, पं. बिहारी लाल साहित्याचार्य, कवि शिरोमणि भट्ट मथुरानाथ शास्त्री, मीमांसक पं. चन्द्रशेखर द्विवेदी, पं. चन्द्रधर शर्मा गुलेरी साहित्याचार्य पं. गोविन्दनारायण शर्मा नैयायिक, पं. खड्गनाथ मिश्र तथा डॉ. मण्डन मिश्र पूर्व कुलपति सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी एवं प्रथम कूलपति ज.रा. राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालय तथा राज्य के प्रथम मुख्यमंत्री श्री हीरालाल जी शास्त्री प्रमुख शिष्य रहे हैं। वाराणसी संस्कृत विश्वविद्यालय के वेद विभागाध्यक्ष वेदमार्तण्ड पं. भगवद्दत्त मिश्र तथा नाट्याचार्य पं. प्रभुनारायण शर्मा जिन्होने नाट्य संघ की स्थापना की थी. ये भी इस महाविद्यालय के मनीषी रहे हैं। जिनकी ख्याति एवं गौरवपूर्ण ज्ञान की निर्मल धारा देश विदेश में आज भी प्रवाहित है।
वर्तमान में भी चारों वेदों के अध्ययनाध्यापन के साथ आचार्य (स्नातकोत्तर) पर्यन्त सहित्य व्याकरण, धर्मशास्त्र, ज्योतिष गणित एवं फलित, न्याय दर्शन, सामान्य दर्शन इत्यादि परम्परागत विषयों तथा शास्त्री स्तर पर हिन्दी साहित्य, अंग्रेजी साहित्य आदि आधुनिक वैकल्पिक विषयों से छात्र लाभान्वित हो रहे हैं। इसी कामना के साथ-
'आप्नुहि श्रेयांसम् अतिसमं क्राम' यश प्राप्त करो और अपने समकक्षों से आगे बढ़ो ।।
प्रो. शालिनी सक्सेना
प्राचार्य