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    अतृष्यन्तीरपसो यन्त्यच्छा
    अथक परिश्रम करने वाले सुख प्राप्त करते हैं।
    Those who toil tirelessly alone shall attain happiness.

    भारतीय संस्कृत एवं संस्कृति की अजस्र धारा का संवहन करने वाली, अपराकाशी के रूप में सर्वमान्य, भारतवर्ष के प्रथम चार संस्कृत शिक्षण संस्थानों (वाराणसी, पूना, कलकत्ता और जयपुर) में अग्रगण्य, अनन्तज्ञान को धारण करने वाले इस परम्परागत संस्कृत शिक्षण संस्थान की स्थापना जयपुर के महाराजा सवाई रामसिंह जी द्वितीय (1835-1880) द्वारा संस्कृत भाषा के संरक्षण, संवर्द्धन एवं प्रचार प्रसार हेतु की गई थी। सन् 1852 में प्रतिष्ठापित महाराज संस्कृत कॉलेज, जयपुर के प्रथम प्राचार्य पं. श्री एकनाथ झा से लेकर गौरवशाली विद्वत्परम्परा आज भी अपने मूल स्वरूप को प्रतिष्ठापित किए हुए है। वर्तमान में इस महाविद्यालय का संचालन राजस्थान-सरकार के संस्कृत-शिक्षा-निदेशालय के अध्यधीन हो रहा है तथा जगद्गुरु रामानन्दाचार्य राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालय जयपुर से सम्बद्धता प्राप्त है।

    आज भी चारों वेदों का अध्ययन अध्यापन यहाँ का महनीय गौरव है। यहाँ आचार्यपर्यन्त साहित्य, व्याकरण, ज्योतिष, न्याय-दर्शन, सामान्य-दर्शन, धर्मशास्त्र आदि परम्परागत विषयों के साथ शास्त्री स्तर पर हिन्दी, अंग्रेजी, राजनीति विज्ञान, इतिहास, पर्यावरण एवं कम्प्यूटर जैसे आधुनिक विषयों के अध्ययन-अध्यापन की नियमित व्यवस्था है। परम्परागत एवं सैद्धान्तिक ज्ञान के मंजुल संयोग के साथ आधुनिक ज्ञान की विविध शाखाओं के विज्ञान का प्रतिपादन करने वाली यह संस्था आज भी अपने गौरवमयी ऐतिह्य को प्रतिष्ठापित किये हुये है। यह संस्था निरन्तर संस्कृत एवं संस्कृति के प्रचार प्रसार एवं सम्वर्द्धन के प्रति कटिबद्ध है, क्योंकि -

     

    अधारयद् अररिन्दानि सुक्रतुः।
    प्रत्येक पुरुषार्थी अनवरत प्रयास करता है।

     

     

    A seeker of ‘Dharma Artha, Kama and Moksha, strives ceaselessly

    ~ Rig.1.39.10